Lekhika Ranchi

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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःबिखरे मोती


आहुति

(6)
अखिलेश्वर कई दिनों तक लगातार बीमार रहने के कारण घर के बाहर न निकल सके। खाट पर अकेले पड़े-पड़े धन्नियाँ गिनते हुए उन्हें अनेक बार कुन्तला की याद आई। कई बार उन्होंने सोचा कि उसे बुलवा भेजें; फिर जाने क्या आगा-पीछा सोचकर वे कुन्तला को न बुला सके। इधर कई दिनों से अखिलेश्वर का कुछ भी समाचार न पाकर कुन्तला भी उनके लिए उत्सुक थी। वह बार-बार सोचती, एकाएक इस प्रकार आना क्यों बंद कर दिया? क्‍या बात हो गई। किंतु वह अखिलेश्वर के विषय में राधेश्याम से कुछ पूछते हुए डरती थी! इसी बीच एक दिन कुन्तला की माँ ने कुन्तला को बुलवा भेजा। राधेश्याम कुन्तला से यह कहकर कि जब ताँगा आवे तुम चली जाना, कचहरी चले गए ।। कुन्तला माँ के घर जाकर जब वहाँ से तीन बजे लौट रही थी तो रास्ते में हाथ में दवा की शीशी लिए हुए अखिलेश्वर का नौकर मिला। नौकर से मालूम करके कि अखिलेश्वर बीमार है, कई दिनों तक तेज बुखार रहा है, अब भी कई दिन घर से बाहर न निकल सकेंगे, कुन्तला अपने को रोक न सकी। क्षण-भर के लिए अखिलेश्वर से मिलने के लिए उसका हृदय व्याकुल हो उठा। अखिलेश्वर के मकान के सामने पहुँचते ही ताँगा रुकवाकर वह अंदर चली गई। साथ में उसकी छोटी बहिन भी थी।

अचानक कुन्तला को अपने कमरे में देखकर अखिलेश्वर को विस्मय और आनंद दोनों ही हुए। अपनी खाट के पास ही कुन्तला के बैठने के लिए कुरसी देकर वे स्वयं उठकर खाट पर बैठ गए, बोले, "कुन्तला! तुम कैसे आ गई? इस बीमारी में तो मैंने तुम्हारी बहुत याद की।"

इसी समय राधेश्याम जी ने कमरे में प्रवेश किया। कुन्तला कुछ भी न बोल पाई। राधेश्याम को देखते ही अखिलेश्वर ने कहा, “आओ भाई राधेश्याम " आज कुन्तला आई तो तुम भी आए, वर्ना आज आठ दिन से बीमार पड़ा हूँ, रोज ही तुम्हारी याद करता था पर तुम लोग कभी न आए ।' फिर घड़ी की ओर देखकर बोले, “आज तीन ही बजे कचहरी से कैसे लौट आए?”
राधेश्याम ने रुखाई से उत्तर दिया, 'कोई काम नहीं था, इसलिए चला आया! फिर पत्नी की ओर मुड़कर बोले, चलो चलते हो? मैं तो जाता हूँ।'

अखिलेश्वर ने बहुत रोकना चाहा, पर वे न रुके, चले ही गए। उनके पीछे-पीछे कुन्तला भी चली। जाते-जाते उसने अखिलेश्वर पर एक ऐसी मार्मिक दृष्टि डाली जिसमें न जाने कितनी करुणा, कितनी विवशता, कितनी कातरता और कितनी दीनता थी। कुन्तला चली गई। किंतु उसकी इस करुण दृष्टि से अखिलेश्वर की आँखें खुल गईं। राधेश्याम के आंतरिक भावों को वे अब समझ सके।

घर पहुँचकर कुन्तला कुछ न बोली, वह चौके में चली गई। कुछ ही क्षण बाद उसने लौटकर देखा कि उसके लेख, कविताएँ, कापियाँ, पेंसिलें और अखिलेश्वर द्वारा उपहार में दी हुई फाउंटेनपेन सब समेटकर किसी ने आग लगा दी है, उसी अग्नि में अखिलेश्वर का वह प्यारा चित्र जो कुछ ही क्षण पहिले ड्राइंग रूप की शोभा बढ़ा रहा था, धू-धू करके जल रहा है। और ऊपर उठती हुई लपटें मानो यह कह रही हैं, "कुन्तला यह तुम्हारे साहित्यिक-जीवन की चिता है।"

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